Wednesday, April 24th, 2024 Login Here
वर्ष 2014 के आम चुनाव में भाजपा 'सबका साथ, सबका विकास के जिस नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी, वह कारगर रहा। इस नारे ने मतदाताओं के मानस को कुछ इस कदर प्रभावित किया कि भाजपा लोकसभा की 282 सीटें जीत गई। फिर आया 2019 का चुनाव, जिसमें 'मोदी है तो मुमकिन है नारे ने असर दिखाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछली बार से भी बड़ी सफलता हासिल करते हुए 303 सीटों के साथ सत्ता में वापस लौटे। 2019 के चुनाव में जीत के बाद भाजपा मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने 'सबका साथ, सबका विकास नारे में 'सबका विश्वास और जोड़ दिया। इस नए जुड़ाव के साथ उन्होंने राजनीतिक विमर्श को जो नई दिशा दी, उस पर बहुत ज्यादा टीकाकारों ने गौर नहीं किया। यदि इसकी गहराई से पड़ताल की जाए तो मालूम पड़ेगा कि मोदी एक आम नेता से राजनेता यानी स्टेटसमैन बनने की ओर बढ़ रहे हैं। एक नेता वही होता है, जो अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसी एक तबके के हितों से खिलवाड़ कर सकता है। जबकि राजनेता आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपने मूल्यों पर अडिग रहता है। याद करें कि जब पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने कश्मीर पर भारत का पक्ष रखने के लिए तब विपक्ष में नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भेजने का फैसला किया। दलगत भावना से परे लिए गए नरसिंह राव के इस फैसले को अःसर स्टेटसमैनशिप की मिसाल बताया जाता है। 2019 के चुनाव में भाजपा को 37.4 प्रतिशत मत हासिल हुए। इसका अर्थ है कि 62.6 फीसदी मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व पर भरोसा नहीं जताया। ऐसे में वह महज समर्थन और वृध्दि से बढ़कर अपने दर्शन को बदलते हुए सबका विश्वास जीतने में जुटे हैं। यह एक विचारणीय बदलाव है। वह सभी का विश्वास अर्जित कर देश के सर्वमान्य नेता बनना चाहते हैं, जिसका अर्थ यही है कि वह दलगत राजनीति से परे जाकर नया मुकाम हासिल करने के इच्छुक हैं। अपने पहले कार्यकाल में उन पर आरोप लगे कि कथित गोरक्षकों की शरारती गतिविधियों पर उन्होंने या तो प्रतिक्रिया ही नहीं दी या फिर बहुत देर से ऐसा किया। 2019 के जनादेश के बाद उन्होंने ऐसे किसी भी वाकये पर त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है और यहां तक कि संसद में बयान भी दिया। कहने का अर्थ यह नहीं कि ऐसी अप्रिय घटनाओं पर उन्हें पहले जरा भी दर्द महसूस नहीं हुआ, लेकिन अब यह और स्पष्ट है कि वह भारत का भरोसा हासिल करने के लिए अतिरिक्त प्रयास कर रहे हैं। इसी सिलसिले में 30 अगस्त को कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने हिदायत दी कि वे संवाद और आलोचना के दौरान मर्यादा और शालीनता का परिचय दें। भारत एक जीवंत एवं गतिशील लोकतंत्र है। फिर भी मोदी सरकार के कट्टर आलोचक अलग ही राग अलाप रहे हैं। उनमें से कुछ यहां तक कह रहे हैं कि लोकतंत्र की मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उनके ऐसे दावों की पड़ताल के लिए कोई भी भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव जैसे पैमानों पर दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्रों के साथ इसकी तुलना कर सकता है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाए जाने के खिलाफ दायर याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार करना स्वतंत्र न्यायपालिका की ताजा मिसाल है। स्वतंत्र न्यायपालिका अपने विवेक से कार्यपालिका की गतिविधियों की भी समीक्षा कर रही है, जो परंपरा से इतर है। कुछ मामलों में तो उसने कानून बनाने के निर्देश तक दिए हैं। ऐसा ही एक फैसला मुस्लिम महिलाओं के साथ पक्षपात से जुड़ा था। पिछली सरकारें वोट बैंक छिटकने के डर से ऐसे अदालती निर्देशों पर अमल करने से कतराती थीं। आर्थिक उत्थान के लिए भारतीयों का एक बड़ा तबका बीते 72 वर्षों र्से टकटकी लगाए हुए है। इसे केवल आर्थिक वृध्दि से ही संभव बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले पांच वर्षों र्में र्देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। राजनीतिक गलियारों और मीडिया की दुनिया में आलोचक इसका उपहास उड़ा रहे हैं। कुछ अर्थशास्त्री इसे असंभव बता रहे हैं तो कुछ इसे लेकर आशंकाएं जाहिर कर रहे हैं। मौजूदा आर्थिक सुस्ती को वे अपनी धारणा की पुष्टि के रूप में पेश कर रहे हैं। जो भी हो, आने वाले समय में मोदी सरकार की क्षमताओं की कड़ी परीक्षा होनी है। पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था देश से गरीबी का समूल नाश भले न कर पाए, लेकिन इससे गरीबों की तादाद घटने की भरी-पूरी संभावनाएं हैं।