Wednesday, April 24th, 2024 Login Here
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मध्य प्रदेश में इस साल अतिवर्षा और बाढ़ के कारण करीब 16 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है। प्रदेश में साल 2013 के बाद सबसे अधिक 1348.3 मिमी बारिश (30 सितंबर तक) दर्ज की गई है। अभी तक सामने आए आंकड़ों के अनुसार लगभग 55 लाख 36 हजार 517 किसान प्रभावित हुए हैं, करीब 60.47 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पर पानी का प्रभाव है, सोयाबीन और उड़द की फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है। यदि बाढ़-बारिश और आकाशीय बिजली के कहर को मौत से जोड़ा जाए तो अब तक प्रदेश के करीब 674 लोगों ने जान गंवाई है। लगभग एक लाख 18 हजार 386 मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं।
तो क्या यह माना जाए कि पानी प्रतिशोध ले रहा है? जहां थम गया, वहीं जम गया! नदी-नालों, कुओं-तालाबों की परीक्षा लेकर, पानी गांव-कस्बों, नगर-शहरों और राज्यों की सीमाएं लांघ रहा है। कभी आगे बढ़ रहा है, तो कभी लौटकर आ रहा है। जमीन के जिस हिस्से में जितनी क्षमता है, उसने उतना पानी पी-सहेज लिया है। शेष बर्बादी की बाढ़ है। क्या प्रकृति और मनुष्य के बीच लगातार हो रहे ऐसे ही द्वंद्व का जवाब 'राइट टू वाटर' है? यदि वैज्ञानिक ढंग से सोचा जाए तो ऐसे उपाय ही हमें विध्वंस से बचाएंगे और सूखे के हालात से उबरना भी सिखाएंगे।
मध्य प्रदेश, देश का पहला राज्य है जिसने 'राइट टू वाटर' की पहल की है। हालांकि मुख्यमंत्री ने जब इस योजना की रूपरेखा तैयार करने पर सहमति दी थी, तब जलसंकट से प्रदेश का 'गला' सूख रहा था। अब स्थिति इससे ठीक उलट है। पानी अब सिर से ऊपर है, लेकिन पानी फिर भी नहीं है। मतलब, 'पीने का साफ पानी'। यदि संवैधानिक अधिकारों की बात करें तो अनुच्छेद-21 सामने आता है। यह जीने के अधिकार को मान्यता देता है। इसलिए, पानी का अधिकार सबसे अहम है। संभवत:, इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वैज्ञानिकों की एक समिति गठित की जाए, जो संरक्षण के साथ पानी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए भी सुझाव दे। केंद्र सरकार तो इस पर सक्रिय हुई ही है, लेकिन मध्य प्रदेश अब उससे एक कदम आगे निकलने की तैयारी में है। वह 'पानी का अधिकार' कानून लाने वाला पहला प्रदेश बनने में जुटा हुआ है। देशभर के विशेषज्ञ मिलकर प्रारूप तैयार कर रहे हैं, प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारी भी इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि कैसे मध्य प्रदेश की साढ़े सात करोड़ की आबादी को उनके हिस्से का शुद्ध पेयजल उपलब्ध करवाया जाए। बड़ी चुनौती यह भी है कि ऐसी कार्ययोजना मूर्त रूप कैसे लेगी? क्योंकि, अभी तक हमारे सामने ऐसा कोई उदाहरण नहीं है।
दरअसल, सभी को पीने का साफ पानी मिले, इसे लेकर देश-दुनिया में 42 साल से मशक्कत चल रही है। पानी को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो बड़े समझौते हुए, उसमें पहली निर्णायक पहल वर्ष 1977 में हुई थी। इसके तहत कई देशों ने मिलकर संकल्प लिया था कि सभी को सही गुणवत्ता और मात्रा में पेयजल मिले। उसके बाद भी पेयजल को लेकर पांच से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय घोषणाएं हो चुकी हैं। लेकिन, ऐसी कोई उल्लेखनीय पहल अब तक सामने नहीं आई, जिससे यह उम्मीद बंधे कि पेयजल के लिए सार्थक दिशा में काम हो रहा है।
यदि मध्य प्रदेश के संदर्भ में बात करें तो पानी समस्या-समाधान से ज्यादा राजनीतिक मुद्दे के रूप में सामने आता रहा है। मांग और पूर्ति के अंतर पर ढेर सारी राजनीतिक व्याख्याएं विवाद का विषय बनती रही हैं। लेकिन, यह कभी नहीं सोचा या बोला गया कि राजनीतिक लाभ-हानि से जुड़े आरोप-प्रत्यारोप से परे, पानी हमारी अनिवार्य आवश्यकता है और इसके लिए हम एक होकर काम करेंगे। वाटर एड संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के कुल भूमिगत जल का 24 फीसदी उपयोग भारतीय करते हैं। देश में 1170 मिमी औसत बारिश होती है, लेकिन हम इसका सिर्फ छह फीसदी ही सुरक्षित रख पाते हैं। नीति आयोग की ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, 2020 तक देश में 10 करोड़ लोगों के सामने पीने के पानी की समस्या होगी। यदि फिर भी नहीं संभले तो 2030 तक 40 प्रतिशत आबादी प्रभावित होगी।
आंकड़ों के इस चक्रव्यूह को समझने के लिए मध्य प्रदेश सरकार की ओर से अभी कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है, लेकिन 'कालापानी' कहे जाने वाले बैतूल के भीमपुर ब्लॉक के दर्जनों गांव में साफ पानी की बूंद-बूंद को तरसते लोगों ने जब चक्काजाम किया, तो यहां पानी परेशानी का नया मुद्दा बनकर सामने आया। क्योंकि, यह मध्य प्रदेश के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री सुखदेव पांसे का इलाका है। पानी की ऐसी ही कमी से सबसे पहले रूबरू होने वाले यही वे मंत्री हैं, जिनके पास 'राइट टू वाटर' एक्ट को लागू करवाने की जिम्मेदारी भी है। क्या इस आधार पर माना जा सकता है कि पानी की कहानी के सभी किरदारों को सम्मानजनक स्थान मिलेगा? वैसे भी, तय मानकों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में रोजाना 55 लीटर पानी आना चाहिए। मध्य प्रदेश सरकार ने भी यह माना है कि राज्य के अधिकतर इलाकों में नल-जल योजना उस तरह से सफल नहीं है, जैसी अपेक्षा थी।
फिर लौटते हैं बादलों की बातों पर। मध्य प्रदेश में इस साल औसत से 46 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई है, लेकिन इसे सहेजकर नहीं रखा जा सका! लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के मुखिया सीएस संकुले कहते हैं - 'हम इसी 'अफसोस' का हल राइट-टू-वाटर में तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। यूं मानिए कि ऐसी कार्ययोजना बनाई जाए कि हर गांव अपने हिस्से का पानी सहेजकर रख ले। बड़े-बड़े बांधों की जगह छोटे-छोटे तालाब, पोखर, कंटूर जैसी जल संरचनाएं हों। लेकिन, सिर्फ सोचने या योजना बनाने से यह नहीं होगा।' भूजल स्तर का अध्ययन करने वाली संस्था ग्राउंड वाटर एक्शन ग्रुप के सदस्यों का भी आरोप है कि योजनाएं तो बन जाती हैं, लेकिन उन्हें वैज्ञानिक अध्ययन या सर्वे के साथ लागू नहीं किया जाता। इससे तथ्यात्मक रूप से यह बताया नहीं जा सकता कि वास्तविक समस्याएं कहां हैं? याद यह भी रखा जाना चाहिए कि देश में पहली बाढ़ नीति तीन सितंबर 1954 में आई थी। 1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने 200 से ज्यादा सिफारिशें दीं, लेकिन अधिकांश लागू नहीं हो पाईं।
बहरहाल, बादलों की मेहरबानी है कि हमें इस बार उम्मीद से ज्यादा पानी मिला है। यह हमारे जल प्रबंधन का दोष है कि हम इसे संभाल नहीं पाए! उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में जल प्रबंधन के लिए पहली बार नई पहल कर रहा प्रदेश, पानी पर बदलाव की नई कहानी लिखेगा!
Chania