Thursday, April 25th, 2024 Login Here
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राजस्थान के कोटा, बूंदी, बीकानेर, जाेधपुर के अस्पतालाें में नवजात बच्चाें की माैत के बाद अब गुजरात के अहमदाबाद और राजकाेट में बच्चाें की माैत के आंकड़े ने पूरे देश काे झकझाेर कर रख दिया है। देश में स्वास्थ्य क्षेत्र सवालाें के घेरे में है लेकिन सिस्टम काे सुधारने के लिए जाे सवाल उठने चाहिए वे नदारद हैं। सियासत कितनी निष्ठुर हाेती है इसका पता बच्चाें की माैत के मामले में राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रियाओं से लग जाता है। भाजपा और बसपा राजस्थान की गहलाेत सरकार काे निशाना बना रही हैं, अब मामला गुजरात के अस्पतालाें में बच्चाें की माैत का सामने आ गया है ताे कांग्रेस काे भी गुजरात की विजय रूपाणी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार काे निशाना बनाने का मुद्दा मिल गया है।

सवाल ताे यह है कि आखिर बच्चाें की माैत का आंकड़ा राेजाना बढ़ क्याें रहा है, अस्पताल माैत क्याें बांट रहे हैं। सरकारें और अस्पताल की ओर से सफाई दी जा रही है कि जिन बच्चाें की माैत हुई है, उनकी स्थिति पहले से ही नाजुक थी। आमताैर पर इस तरह की घटना के बाद इसी तरह की सफाई दी जाती है लेकिन सवाल यह है कि अपना पल्ला झाड़ने की बजाय क्या ऐसी घटनाओं का उदाहरण सामने रख कर बचाव के पूर्व इंतजाम क्याें नहीं किये जाते। वर्तमान सरकाराें के जनप्रतिनिधि पूर्व की सरकाराें काे जिम्मेदार बताते हैं।

राजस्थान की वर्तमान कांग्रेस सरकार पिछली भाजपा सरकार काे कठघरे में खड़ा कर सकती है लेकिन गुजरात की भाजपा सरकार पूर्व की सरकार काे जिम्मेदार भी नहीं ठहरा सकती, क्योंकि पहले भी वहां भाजपा की ही सरकार थी। इससे स्पष्ट है कि देशभर में स्वास्थ्य ढांचा बहुत कमजाेर है। यही कारण है कि बच्चाें की जानें जा रही हैं। पिछले कुछ सालाें से इसी तरह के हालात में सैकड़ाें बच्चाें की माैताें के दृिष्टगत मां और शिशु का जीवन बचाने के उद्देश्य से राज्य सरकार ने ‘निराेगी राजस्थान’ कार्यक्रम की शुरूआत की है और स्वास्थ्य सेवाओं काे बेहतर बनाने के लिए कदम उठाये गए लेिकन इसके बावजूद अस्पतालाें की स्थिति में काेई फर्क नहीं आया।

हर साल दूर-दराज के इलाकाें से कड़ाके की ठंड के बीच बीमार बच्चाें काे मां-बाप काे शहराें के अस्पतालाें में क्याें ले जाना पड़ता है? क्याें सामािजक संगठनाें काे अस्पतालाें में जाकर हीटर और कम्बल बांटने पड़ते हैं? हर साल अस्पतालाें में बच्चाें की माैत हाेती है ताे फिर स्वास्थ्य मंत्रालय ब्लाेअर हीटर उपलब्ध क्याें नहीं कराता तािक हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में नवजात शिशु काे गर्म तापमान इस बाहरी दुिनया में हािसल हाे सके। अस्पतालाें की खिड़कियां क्याें टूटी रहती हैं। सरकारें संवेदनहीन हैं, राजनीति क्रूर और तंत्र नकारा है।

दूर-दराज और ग्रामीण इलाकाें में प्राथमिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा क्षत-विक्षत है। इन इलाकाें में स्वास्थ्य सुिवधाएं मिलती ही नहीं जिससे बच्चाें की स्थिति पहले ही काफी बिगड़ चुकी हाेती है। ऐसी हालत में बच्चाें काे शहर के अस्पतालाें में चिकित्सा सुविधा मुहैया करा भी दी जाये ताे स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। सवाल ताे यह है कि सरकार सर्दियों में बड़ी संख्या में बच्चाें के किसी बीमारी की जद में आने और उनकी जान तक जाने का खतरा बढ़ जाता है ताे ऐसे में सरकार हालात से निपटने के लिए इंतजार क्याें करती रहती है? माैसम के अलावा अस्पतालाें की अव्यवस्था और आवश्यक संसाधनाें का अभाव भी मरीजाें की माैत का कारण बनता है।

निजी अस्पताल ताे लूट का अड्डा बन चुके हैं। जाे मरीजाें की खाल खींच लेते हैं। जब उत्तर प्रदेश के गाेरखपुर में काफी संख्या में बच्चाें की माैत हुई थी ताे अस्पताल की अव्यवस्था सामने आ गई थी। अस्पताल में बच्चाें काे सांस देने के लिए ऑक्सीजन के सिलेंडर तक उपलब्ध नहीं थे। यदि ईमानदारी से देश के अस्पतालाें में मृत्यु दर का आंकड़ा एकत्र किया जाये ताे तस्वीर काफी भयावह उभरेगी। भारत उन देशाें में शािमल है जाे स्वास्थ्य क्षेत्र में अपने जीडीपी का बहुत कम हिस्सा खर्च करता है।

भारत हैल्थ सैक्टर पर जीडीपी का सिर्फ 1.16 फीसदी हिस्सा खर्च करता है। चीन बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये जीडीपी का 3 फीसदी और ब्राजील 4 प्रतिशत से ज्यादा खर्च करता है। भारत में एक हजार लाेगाें पर एक डाक्टर का अनुपात कायम रखने के लिए इस वर्ष चार लाख डाक्टराें की जरूरत हाेगी। देश में एक हजार लाेगाें पर सिर्फ 1.6 बैड उपलब्ध हैं यािन एक हजार लाेगाें पर दाे से कम बैड हैं। एक तरफ स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव दूसरी तरफ गरीबी और कुपाेषण है। जब मां ही कुपाेषण का शिकार हाेगी ताे वह अपने बच्चाें का जीवन कैसे बचा पायेगी। देश का हैल्थ सैक्टर खुद बीमार है ताे फिर लाेगाें का उपचार कैसे हाेगा।

Chania