Friday, March 29th, 2024 Login Here
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 राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने में मात्र छह दिन का समय शेष रह गया है जिसे देखते हुए चुनाव प्रचार अब शबाब पर है। दिल्ली की सत्ता मतदाता किस पार्टी के हाथ में देंगे इसका पता मतगणना वाले दिन चलेगा परन्तु इतना विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि दिल्ली वाले राजनैतिक माहौल को नई रोशनी जरूर देंगे। इसकी खास वजह यह है कि दिल्ली कभी भी भेड़चाल की शिकार नहीं रही है। इसके मतदाताओं ने हमेशा वह फैसला किया है जिससे राजनीति में नई ऊर्जा आई है। इसके साथ ही इसके मतदाता इतने होशियार और दानिशमन्द रहे हैं कि वे पालिका, राज्य व राष्ट­ीय चुनावों के अन्तर को समझते हुए विभिन्न राजनैतिक दलों के हाथ में शासन की बागडोर थमाते रहे हैं।  1967 में जब देश में कांग्रेस हटाओ का नारा स्व.  राम मनोहर लोहिया की सदारत में गूंजा था तो दिल्ली की सात लोकसभा सीटों में से छह सीटें विरोधी पार्टी जनसंघ को मिली थी केवल बाहरी दिल्ली की सीट पर दिल्ली कांग्रेस के महाबली स्व. चौधरी ब्रह्म प्रकाश जनसंघ के चौधरी मीर सिंह को हराने में सफल रहे थे। जनसंघ की यह पहली जीत थी जो तब दिल्ली की महानगर परिषद में भी दर्ज हुई थी। दरअसल दिल्ली वालों ने यह पहला प्रयोग किया था कि तब तक विपक्ष में बैठ कर आलोचना करने वाली पार्टी जनसंघ सत्ता में आकर किस प्रकार का शासन दे सकती है लेकिन 1971 के चुनावों में पासा पलट गया। दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटों पर कांग्रेस विजयी रही और महानगर परिषद भी इसके हाथ से खिसक गई मगर दिल्ली नगर निगम के लिए इसी के एक महीने बाद हुए चुनावों में जनसंघ विजयी रही। उस समय जनसंघ के सर्वोच्च नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का निगम चुनाव प्रचार में दिया गया वह भाषण बहुत लोकप्रिय हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि दिल्ली वालो आपने हमें राष्ट­ की नीतियां बनाने के योग्य तो नहीं समझा मगर अब हमारे हाथ में झाड़ू तो रहने दो जिससे हम दिल्ली की साफ-सफाई का काम कायदे से कर सके। नतीजतन नगर निगम चुनावों में दिल्ली के मतदाताओं ने पलटी मारी और जनसंघ को पूर्ण बहुमत दे दिया।  इससे  दिल्ली वालों के राजनैतिक मिजाज और सूझबूझ का लोहा सभी नेताओं ने माना। दिल्ली में विधानसभा गठित होने के बाद इस सदन में जो राजनैतिक संरचना रही है वह भी बहुत ज्यादा दिलचस्प और दिमाग खोलने वाली रही है। विधानसभा गठित करने का फैसला स्व. पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार के दौरान 1993 में किया गया परन्तु दिल्ली वालों ने पहला मुख्यमन्त्री भाजपा के मदन लाल खुराना को बनाया और 1998 तक दो और दिग्गज भाजपा से स्व. साहिब सिंह वर्मा व श्रीमती सुषमा स्वराज बनी। इसके बाद फिर से 1971 की कहानी दोहराई गई, दिल्ली वालों ने देश की कमान भाजपा को दी मगर दिल्ली की कमान स्व. शीला दीक्षित को दी और वह लगातार 15 वर्ष तक इस पद पर बनी रहीं लेकिन 2004 में केन्द्र में कांग्रेस की डा. मनमोहन सिंह सरकार बन जाने के बाद 2014 तक इसके काबिज रहते ही दिल्ली वालों ने 2013 के विधानसभा चुनावों में पलटी मार दी और नई बनी आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को परखा मगर पूर्ण बहुमत नहीं दिया। अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरुध्द नागरिक आन्दोलन की उपज थे।  अत: दिल्ली वाले उनके शासन करने की महारथ को ताड़ते रहे और जब वह विधानसभा के भीतर पूर्ण बहुमत न होने की वजह से बने राजनैतिक जोड़-तोड़ को सलाम कह बैठे तो 2015 में विधानसभा को भंग करके चुनावों में दिल्ली वालों ने दिल खोल कर केजरीवाल को अपनी कृपा से इस तरह बख्शा कि एक नया रिकार्ड बन गया और कुल 70 सीटों में से 67 सीटें आम आदमी पार्टी के खाते में चली गईं।दिल्ली वालों ने सिध्द कर दिया कि दिल्ली दिल वालों की केवल कहने के लिए नहीं बल्कि असल में है मगर इससे पहले 2014 के चुनावों में इन्हीं दिल्ली के मतदाताओं ने भाजपा को लोकसभा की सारी सातों सीटें दे दी थीं। पिछले साल 2019 के मई महीने में ही लोकसभा के चुनाव हुए थे जिनमें सभी सीटें भाजपा के खाते में गई थीं। आम आदमी पार्टी तो इन चुनावों में तीसरे नम्बर पर रही थी जबकि कांग्रेस दूसरे नम्बर पर रही थी।  यह हकीकत भी दिल्ली वालों के उसी मिजाज को बयान करती है जिसका मुजाहिरा पहली बार 1971 में हुआ था लेकिन राजनैतिक दल चुनावी मैदान में अन्तिम समय तक डटे रहते हैं और एक-दूसरे को पछाड़ने की तरकीबें व तजवीजें बनाते रहते हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को विधानसभा में एक भी सीट नसीब नहीं हुई थी मगर आज उसने अपना घोषणापत्र जारी करके ताल ठोकी है।इसी प्रकार भाजपा को पिछले चुनाव में केवल तीन सीटें मिली थीं, उसने भी अपना चुनावी वादा पत्र जारी करके विभिन्न सौगात देने की घोषणा की है, जबकि केजरीवाल तो पिछले साल के अन्त से ही सौगातों की बहार लगाये हुए हैं। वैसे उनके द्वारा शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र में किया गया कार्य सभी पार्टियों के कार्यकर्ताओं के दिल में रश्क पैदा कर रहा है लेकिन दिल्ली में चुनावी मुद्दा बहुत करीने से शाहीन बाग आदोलन भी बन रहा है जो नागरिकता कानून के खिलाफ चल रहा है।  राज्य के मुद्दों के बीच राष्ट­ीय मुद्दे का आना कोई पहली बार नहीं हो रहा है। ऐसा हाल में हुए कुछ दूसरे राज्यों के चुनावों में भी हो चुका है। राजधानी दिल्ली मिनी भारत भी कहलाती है ःयोंकि इसमें हर प्रदेश का नागरिक निवास करता है। इसलिए यहां के मतदाताओं का चुनावी फैसला राज्य के सन्दर्भ में राष्ट­ीय पैगाम देने वाला भी कहा जा सकता है किन्तु असलियत में दिल्ली जैसे अर्ध्द राज्य की हुकूमत चलाने का जनादेश ही तो होगा।
Chania