Friday, March 29th, 2024 Login Here
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भारत के संसदीय लोकतंत्र में इसकी संसद इसके लोगों का नेतृत्व इस प्रकार करती रही है कि इसकी विविधतापूर्ण की सभी प्रकार की सहमतियां व असहमतियां एकाकार होकर आम राय में तब्दील हो सकें और भारतवासियों की एकता की छवि बनकर प्रत्येक भारतीय की सत्ता में हिस्सेदारी को तय कर सके परन्तु क्या गजब हुआ कि लोकसभा में राष्ट­पति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव ज्ञापन की शुरूआत की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ पार्टी ने अपने एक ऐसे सांसद प्रवेश वर्मा के सुपुर्द की जिसे देश के चुनाव आयोग ने दो दिन पहले ही अपने बेहूदे बयान के लिए सजा दी और उस पर चार दिन तक दिल्ली के चुनावों में प्रचार करने पर प्रतिबंध लगाया था।  लोकलज्जा लोकतंत्र का गहना होता है क्योंकि चुनावों के माध्यम से जो सरकार आम मतदाता हुकूमत पर काबिज करता है उसे चलाने वाले शासक नहीं बल्कि जनता के सेवादार होते हैं और ईमानदारी से सेवा करने के बदले अगले पांच साल में होने वाले चुनावों में इनाम-ओ-इकराम से नवाजे भी जा सकते हैं और इसमें नाकामयाब होने के बदले सजा के तौर पर घर भी बैठाये जा सकते हैं। तभी तो लोकतन्त्र को जनता की जनता के लिए जनता द्वारा सरकार कहा जाता है। नागरिकता कानून के मुद्दे पर शुरू हुए विरोधी आंदोलन को कुछ लोग हिन्दुस्तान के उन बुनियादी उसूलों का सलीब बना देना चाहते हैं जिनके  बूते पर गांधी बाबा ने इस देश के लोगों में आत्मविश्वास व निडरपन भरकर अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी खत्म करके ऐलान किया था कि स्वतन्त्र भारत हर नागरिक के निजी सम्मान की रक्षा करते हुए सभी को बराबरी का हक देने वाला देश बनेगा, मजहब इसके नागरिकों का निजी मामला होगा जिसमें हुकूमत की कोई दखलअंदाजी नहीं होगी। मजहब से कोई भी इंसान छोटा या बड़ा करके नहीं देखा जायेगा क्योंकि संविधान के सामने उसकी हैसियत केवल एक नागरिक की होगी मगर क्या हवा चली है कि भाजपा के एक सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने गांधी बाबा के पूरे स्वतन्त्रता आन्दोलन को ही नाटक या ड­ामा करार देते हुए कह डाला कि आजादी तो अंडेमान निकोबार जेल में कैद किये गये परवानों की वजह से मिली। गांधी तो अंग्रेजों के साथ मिलकर नूरा कुश्ती लड़ रहे थे। याद कीजिये एक जमाने में कम्युनिस्ट भी यही कहा करते थे कि 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद नहीं हुआ था बल्कि यह केवल सत्ता का हस्तांतरण था मगर बाद में कम्युनिस्टों को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने स्वीकार किया कि 15 अगस्त को भारत लम्बी गुलामी से आजाद हुआ था।  गांधी की विचारधारा उन लोगों के गले में हमेशा फांस बनकर अटकती रही है जो नफरत की आग सुलगा कर एक नागरिक को दूसरे नागरिक से भिड़ाने की तजवीजें बनाते रहे हैं। चाहे यह जाति के आधार पर हो या मजहब के आधार पर। इन लोगों की समझ में आज तक यह नहीं आया कि गांधी ने अपनी अन्तिम इच्छा यह क्यों व्यक्त की थी कि उनके प्राण पाकिस्तान की धरती पर ही निकलें। इन अःल के बादशाहों को मालूम होना चाहिए कि गांधी ने मरते दम तक पाकिस्तान की सत्ता और वजूद को कबूल नहीं किया क्योंकि वह मानते थे कि यह दो भाइयों का झगड़ा है जो अन्त में सुलह-सफाई से ही निपटेगा।  क्या कभी सोचा गया है कि गांधी आजादी का जश्न मनाने के बजाय बंगाल के नोआखाली में क्यों चले गये थे? क्या किसी ने विचार किया है कि जब पंजाब की सीमा पर बंटवारे के समय लाशों के अम्बार लग रहे थे और हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे तामीर हुए दो देशों भारत व पाकिस्तान में शरणार्थी बनकर आ-जा रहे थे तो तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड आउंटबेटन ने यह क्यों कहा था कि मुझे पूर्वी सीमा बंगाल की चिन्ता नहीं है क्योंकि वहां एक व्यक्ति की सेना (सिंगल मैन आर्मी) किसी भी दंगे या बलवे को रोकने के लिए काफी है। मुझे परवाह है पश्चिमी इलाके पंजाब की जहां हजारों कम्पनियां सेना की तैनात की गई हैं और वहां खून-खराबा जारी है।  शाहीन बाग में चल रहे अहिंसक आन्दोलन को कुछ लोग हिंसक गतिविधियां करके भड़काना चाहते हैं। ऐसा करके वे भारत के लोकतन्त्र को ही बदनाम कर रहे हैं क्योंकि ये चुनाव विधानसभा में दिल्ली की समस्याओं को हल करने के लिए जिम्मेदार सरकार को चुनने के लिए हो रहे हैं। इसमें सभी हिन्दू-मुसलमान मिलकर ही मतदान में भाग लेंगे और जो भी सरकार 11 फरवरी के बाद काबिज होगी वह हर नागरिक की नुमाइंदगी करेगी इसलिए संसद से सड़क तक आवाज जानी चाहिए कि हम हिन्दुस्तानी इस देश के संविधान के अनुसार अपने हकों का इस्तेमाल अपनी समझ के मुताबिक करेंगे और यह समझ हमें सबसे पहले बाइज्जत नागरिक बताती है जिसकी सुरक्षा के लिए हुकूमत पुलिस का  इंतजाम करती है और यह पुलिस सिर्फ संविधान की कसम उठाकर ही हर नागरिक को कानून का पाबंद देखती है। उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होता। लोकतन्त्र के निजाम में पुलिस की यह भूमिका स्व. सरदार पटेल ही तय करके गये थे। 
Chania