Saturday, April 20th, 2024 Login Here
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लोकसभा चुनावों के केवल दो चरण ही शेष रह जाने के बाद यह सवाल पूरी गर्मी के साथ उभर रहा है कि क्या इन पूरे चुनावों में कहीं युवाओं के मुद्दों को स्थान मिलेगा? पूरे चुनावी प्रचार में शुरू से लेकर अब तक किसानों और कृषि क्षेत्र व ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ शहरी विकास का मुद्दा गायब हुआ है उससे यही लगता है कि 130 करोड़ की आबादी वाले इस देश में लोगों की कोई समस्या नहीं है ! 24 लाख से ज्यादा केन्द्र सरकार की खाली पड़ी नौकरियों के बावजूद करोड़ों की संख्या में घूमते शिक्षित बेरोजगारों के भविष्य की कल्पना कहीं दिखाई नहीं दे रही। दरअसल यह उसी तरह है जिस तरह ‘बिल्ली को देखकर कबूतर आंख मींच कर सोचता है कि उसकी जान को कोई खतरा नहीं है।’ हम यह भूल जाते हैं कि हम ‘भारत’ हैं और इसकी आजादी इसके ही मुफलिस लोगों ने अपने हौंसले के बूते पर अंग्रेजों से पूरी तरह अहिंसक रहते हुए छीनी थी।

इन्हीं हौंसलों से इसकी फौज का निर्माण हुआ है जिसने पाकिस्तान को एक बार नहीं बल्कि तीन बार ऐलानिया शिकस्त दी है और उसे काटकर आधा भी बना दिया है। अतः सबसे अहम सवाल आम हिन्दोस्तानी के हौंसलों को हर हाल में बुलन्द बनाये रखने का है और यह हौंसला तभी बुलन्द होगा जब इसके खेत-खलिहान से लेकर बाजार और उद्योग व शिक्षा जगत की हालत मजबूत होगी। किसी भी देश की तरक्की के लिए यह आधारभूत ढांचा है जिसे मजबूत बनाना लोकतान्त्रिक सरकारों का पहला कर्त्तव्य होता है परन्तु अजीब नजारा पेश हो रहा है कि सियासत में गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 1977 के चुनावों में पहली बार अर्ध गैर-कांग्रेसी मोरारजी भाई सरकार जनता पार्टी की कयादत में बनी थी तो इस पार्टी के नेता डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने लाल किले में इंदिरा सरकार द्वारा गाड़े गये कालपत्र (टाइम कैप्सूल) को खोद कर निकालने की मांग की थी और खोदा भी गया था मगर जब उसमें लिखे विवरण को पढ़ा गया तो सकपका कर पुनः उसे फिर से दबा दिया गया।

लोकतन्त्र व्यक्तिगत या निजी रंजिश को तरजीह नहीं देता है बल्कि यह सिद्धान्तों की प्रतिद्वन्दिता के तर्क युद्ध को हर स्तर पर बढ़ावा देता है। इन्हीं डा. स्वामी ने कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी की भारतीय नागरिकता को लेकर जो संशय का वातावरण बनाया था उससे प्रेरित होकर कुछ लोगों ने इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी जिसे न्यायमूर्तियों ने पांच मिनट में ही खारिज कर दिया। बिना शक किसी भी प्रधानमन्त्री का कार्यकाल लोकतन्त्र में समीक्षा के लिए खुला रहता है और इसका विरोध किये जाने का कोई औचित्य भी नहीं है। इसी प्रकार प्रत्येक मुख्यमन्त्री के कार्यकाल के हिसाब-किताब का खाता भी कभी भी खोला जा सकता है परन्तु यह कार्य केवल पुख्ता दस्तावेजी सबूतों के आधार पर ही हो सकता है।

भारत के न्यायालयों ने जिन्हें निर्दोष करार दिया है और उन्हें कहीं चुनौती नहीं दी गई है तो ऐसे मामलों को तभी पुनः उठाया जा सकता है जबकि उनमें कुछ नये साक्ष्य सामने आये हों। चुनावी राजनीति में अक्सर भावावेश में ऐसे वाकये हो जाते हैं मगर उन्हें मुद्दा बनाते ही तथ्यों की सत्यता की बात होने लगती है। अतः आजादी से पहले ही स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों ने भारत का जो मन्त्र ‘सत्यमेव जयते’ चुना था वह जनसामान्य का अपने ही आने वाले शासन के प्रति निरपेक्ष भाव से समर्पित होना था। यह संकल्प किसी और ने नहीं बल्कि भारत रत्न महामना पं. मदन मोहन मालवीय ने चुना था। खैर, आज मौजूदा चुनावों में न तो सवाल पं. नेहरू का है और न इंदिरा गांधी या राजीव गांधी का बल्कि सवाल मौजूदा सियासतदानों का है जिन्होंने इन चुनावों को व्यक्तिगत युद्ध में बदलने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि ये चुनाव देश को बनाने के लिए हो रहे हैं न कि किसी म्युनिसिपलटी का चेयरमैन चुनने के लिए। लोकसभा में जो 543 सदस्य लोगों द्वारा चुने जायेंगे उनमें से प्रत्येक के मुंह में अपने चुनाव क्षेत्र के लाखों लोगों की जुबां होगी। हम जिन लोगों को चुनावों में चुनते हैं उन्हें जांचना-परखना हमारा पहला काम होता है।

जब बाजार से सब्जी तक खरीदने में हम खूब जांच-परख करते हैं तो पूरे पांच साल के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को किस प्रकार अपनी कमान दे सकते हैं जिसके काम के बारे में हम अच्छी तरह जानते न हों। संसदीय लोकतन्त्र का यही तो अर्थ होता है। वर्तमान में सभी राजनैतिक दलों में जिस प्रकार प्रत्याशियों के चयन में स्वछन्दचारिता बढ़ती जा रही है उसे आम जनता इसी तरीके से रोक सकती है और अपने वोट की ताकत का अंदाजा करा सकती है परन्तु सियासत में फैल रहे ‘मायातन्त्र’ को रोकने का यह अंतिम हल नहीं हो सकता लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मौजूदा सियासतदानों में असल मुद्दे उठाने की हिम्मत ही नहीं है। इस मामले में श्रीमती प्रियंका गांधी ने यह कहकर लोगों का ध्यान खींचा है कि चुनावों में वास्तविक मुद्दे उठने चाहिएं।

इस विषय का महत्व इसलिए और बढ़ गया है क्योंकि पिछले 16 महीनों के दौरान ही आटोमोबाइल क्षेत्र में 46 अरब डालर की कारोबारी कमी दर्ज हुई है और कई अर्थशास्त्रियों ने इसे अर्थव्यवस्था में सुस्ती का परिचायक बताया है जिसकी वजह से और बेरोजगारी बढ़ने का खतरा पैदा हो रहा है। यह सभी राजनैतिक दलों के लिए वास्तव में चिन्ता का विषय होना चाहिए मगर सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सियासदां अब भाषा के जिस स्तर पर उतर रहे हैं उसमें एक-दूसरे की ‘औकात’ बताने की डींगें हांकी जा रही हैं।
Chania