Thursday, May 2nd, 2024 Login Here
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लॉकडाउन के कारण घरों में बंद लोगों के लिए सरकार ने मनोरंजन का एक रोचक रास्ता खोजा है। उसने दूरदर्शन पर 80 और 90 के दशक के कुछ पुराने धारावाहिकों को फिर से दिखाना शुरू किया है। ये वे धारावाहिक हैं, जिन्होंने अपने जमाने में लोगों को काफी प्रभावित किया था और आज भी उन्हें याद किया जाता है। ये धारावाहिक हैं- रामायण, महाभारत, सर्कस और व्योमकेश बख्शी।संकट के इस दौर में अतीत की ओर मुड़कर देखने का यह नुस्खा कुछ अटपटा लग सकता है, लेकिन जब भविष्य को लेकर सामने धुंधलापन हो तो अतीत की ओर देखना सहज मानवीय प्रवृत्ति है। अकसर किसी संकट के समय हम पुराने दिनों को याद कर राहत महसूस करते हैं। संभव है पुराने धारावाहिक भी लोगों को कुछ राहत पहुंचाएं। हालांकि, जिस समय ये धारावाहिक बने, उस समय से लेकर आज तक तकनीक के क्षेत्र में काफी बदलाव हुए हैं। मनोरंजन उद्योग का दायरा काफी बढ़ गया है। टीवी के समानांतर न जाने कितने प्लैटफॉर्म आ गए हैं, जिन पर हम मनोरंजन करते हैं। बहरहाल, बदलाव की यह प्रक्रिया भी पुरानी चीजों को देखते हुए हमारे भीतर नए सिरे से दर्ज होगी। हम पुरानी चीजों की आज से तुलना कर वर्तमान उपलब्धियों को रेखांकित कर सकते हैं। रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिक आज चालीस पार पहुंचे लोगों के लिए नॉस्टैल्जिया का विषय होंगे, लेकिन नई पीढ़ी उन्हें कौतूहल से ही देखेगी।
तमाम तरह की अत्याधुनिक तकनीकों के बीच आंख खोलने वाली जेनरेशन को वे धारावाहिक फीके लग सकते हैं जिस तरह पुरानी फिल्में लगती हैं। हालांकि इनके जरिए वे भारतीय मिथकों और पौराणिकता को बेहतर समझ सकते हैं। वैसे जब अतीत में लौटना ही था तो बेहतर होता कि एकदम आरंभिक सोप ऑपेरा दिखाए जाते। आज ‘हमलोग’ जैसे शुरुआती दौर के पॉपुलर सीरियल देखना एक विशिष्ट अनुभव होता।

हम परख सकते थे कि आखिर इनमें कौन सी ऐसी बात थी जिसने उस वक्त लोगों को इतना छुआ। संभव हो तो ‘बुनियाद’ जैसा धारावाहिक दिखाया जाए। वैसे ‘सर्कस’ और ‘व्योमकेश बख्शी’ जैसे धारावाहिक हमारे भीतर यह सवाल भी पैदा कर सकते हैं कि आखिर आज के धारावाहिक तमाम तरह की तकनीक और साधन संपन्नता के बावजूद कंटेंट के स्तर पर ज्यादातर खोखले क्यों नजर आते हैं? क्यों चार-पांच एपिसोड के बाद वे थकने से लगते हैं? आज से तीस साल पहले जब इतने मजबूत कथ्य वाले धारावाहिक बन सकते थे तो आज क्यों नहीं। आखिर आज साहित्यिक कृतियों पर ‘मालगुडी डेज’, ‘नीम का पेड़’, ‘काला जल’ और ‘कर्मभूमि’ जैसे धारावाहिक क्यों नहीं बन सकते? आखिर बाधा कहां है? वैसे अतीत दर्शन का एक खतरा यह भी है कि कहीं वह हमारे जेहन को जकड़ न ले। हम मानसिक रूप से वहीं थम न जाएं। हमें वापस लौटने की गुंजाइश बनाए रखनी होगी। हमें रिटर्न टिकट रखे रहना होगा। अतीत से कुछ न कुछ सबक लेकर आना होगा और फिर भविष्य की तैयारी में जुट जाना होगा।
Chania