Monday, May 6th, 2024 Login Here
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पाकिस्तान के खिलाफ भारत की फौजी कार्रवाई पर उठा राजनैतिक विवाद पूरी तरह निर्रथक और आत्मघाती है जिसे तुरन्त बन्द होना चाहिए और प्रत्येक पार्टी के नेता को इस मुद्दे पर हर शब्द तोल कर बोलना चाहिए। सवाल यह बिल्कुल नहीं है कि 26 फरवरी की सुबह पाकिस्तान के खैबर पख्तूनवा प्रान्त में स्थित बालाकोट की पहाडि़यों में बने जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी शिविर पर भारतीय वायुसेना के हमले में कितने दहशतगर्द मरे बल्कि असली सवाल यह है कि वायुसेना ने सफलतापूर्वक पाकिस्तान की सरहद में घुसकर जैश के घर पर ही हमला किया। अतः प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी अथवा कांग्रेस नेताओं द्वारा इस सन्दर्भ में हमले या इसमें मारे गये लोगों के सबूत मांगना पूरी तरह गैरवाजिब और गैर जिम्मेदाराना है।

भारतीय हवाई सेना को जो लक्ष्य और कार्य सौंपा गया था वह उसने पूरी निष्ठा के साथ सफलतापूर्वक पूरा कर दिया और उसने मरने वाले दहशतगर्दों की संख्या के बारे में कुछ नहीं कहा तो यह प्रश्न कहां से पैदा हो गया कि कार्रवाई में कितने लोग मरे ? जाहिर है यह बात कहीं से तो निकली ही होगी जिस पर इतना बबाल मच रहा है और भारत में वाक्युद्ध हो रहा है। किसी भी राजनैतिक दल को यह हक नहीं दिया जा सकता कि वह मनमर्जी से हमले के परिणामों की व्याख्या करने लगे। राष्ट्रहित में न तो विदेश की धरती पर वायुसेना के किये गये शौर्य प्रदर्शन पर शंका करना है और न ही उसकी कार्रवाई का राजनैतिक फायदा उठाना है।

इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि इस पूरे प्रकरण का वायुसेना के सुसज्जीकरण से भी दूर–दूर तक कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि हमारे लड़ाकू वीर पायलटों ने उपलब्ध सैनिक साजों-सामान से ही दुश्मन के घर में घुसकर उसके दांत खट्टे कर दिये और जता दिया कि हौसला हो तो आसमान में भी निशान छोड़े जा सकते हैं। मगर लगता है कि आसन्न लोकसभा चुनावों को देखते हुए नेताओं की बुद्धि ‘बकः ध्यानमं’ ( बगुले जैसी एकाग्रता) में अवस्थित होती जा रही है और उन्हें हर मामले से राजनीतिक लाभांश मिलने की उम्मीद नजर आ रही है। भारतीय लोकतन्त्र की न तो यह परंपरा है और न ही इस देश की राजनीति की यह फितरत है कि वह राष्ट्रीय हितों पर किसी प्रकार का समझौता कर सके।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि ममता दी इस बात को इतना महत्व क्यों देना चाहती हैं कि बालाकोट में कितने लोग मारे गये ? और कांग्रेस के नेता क्यों इनकी संख्या बताने पर जोर दे रहे हैं जबकि वायु सेना के एयर वाइस मार्शल रवि कपूर ने 27 फरवरी को बालाकोट कार्रवाई के बारे में बताते हुए साफ कह दिया था कि उन्हें इस बारे में कुछ नहीं कहना है। वायुसेना को जो कार्य दिया गया था और जो निशाना दिया गया था वह उसने सफलतापूर्वक निपटा दिया है। बात यहीं पर समाप्त हो गई थी और इसे खींचना या विवेचना करना किसी भी तरह समयोचित नहीं था। इसकी तफ्सील में जाने का समय बेशक मामला शान्त होने पर तय हो सकता था। मगर इस पर राजनीति शुरू करने का सीधा अर्थ है कि निगाहें लोकसभा चुनावों पर हैं और दोनों ही पक्ष सत्ता व विपक्ष किसी न किसी बहाने इसे जीवन्त रखना चाहते हैं। लेकिन सुखद यह है कि इस मामले पर प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने कुछ भी नहीं कहा है मगर पंजाब से इस पार्टी के नेता नवजोत सिंह सिद्धू जिस प्रकार की ऊल-जुलूल भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं वह पूरी तरह अनुचित है।

इसके साथ ही मध्य प्रदेश के नेता श्री दिग्विजय सिंह को भी सोचना चाहिए कि मामला पाकिस्तान में की गई हमारी सेनाओं की शौर्य कार्रवाई का है। अतः बालाकोट कार्रवाई पर किसी भी प्रकार की दबे-ढके तौर पर भी की जाने वाली राजनीति तुरन्त रुकनी चाहिए और हमें मुद्दे की बात पर आना चाहिए जो कि यह है कि पुलवामा में जिस प्रकार 14 फरवरी को 40 सुरक्षाबलों के जवानों को शहीद किया गया उसे हम रोकने में क्यों असफल रहे। हैरत की बात है कि पिछले 20 साल से लगातार यही हो रहा है कि जब कोई आतंकवादी दुर्घटना हो जाती है तो उसके बाद हम जागते हैं। चाहे वह 1999 में भारत के यात्री विमान का अपहरण हो जिसमें भारत की संघीय सत्ता को आतंकवादियों की शर्तों के सामने झुकना पड़ा था और उसी अजहर मसूद को छोड़ना पड़ा था जिसने जैश-ए-मोहम्मद तंजीम बनाई या फिर चाहे वह 2001 में संसद पर हमला हो या 2008 मंे मुम्बई हमला हो या फिर पठानकोट या उरी हमला हो।

हम सभी मामलों में बाद में जागते हैं। यहां तक कारगिल युद्ध के समय भी हम बाद में ही जागे थे और तब जागे थे जब पाक ने तालिबान आतंकवादियों की मदद से हमारे इलाके में हमारी सरहदों के भीतर आकर गोिलयां बरसाना शुरू कर दिया था। 2008 में तो पाक से आतंकवादी समुद्री रास्ते से पूरे इित्मनान के साथ मुम्बई तक आ गये थे। हम हर मामले में बाद में ही जागे। मगर पुलवामा में हत्याकांड घुमाकर किया गया। एक भटके हुए कश्मीरी युवक को ही जैश जैसे आतंकी संगठन ने अपना हथियार बनाकर हमारे ही खिलाफ प्रयोग कर डाला। इससे यह सवाल उठना लाजिमी है कि कश्मीर में हम किस सीमा तक अपनी नीतियों को सफल कह सकते हैं। यहां हमारी फौजें मुस्तैदी के साथ आतंकवाद समाप्त करने के लिए लगी हुई हैं। इसके बावजूद यदि पुलवामा जैसा कांड होता है तो हमें सोचना होगा कि गड्ढा कहां है। इस राज्य में कुछ महीने पहले तक पीडीपी व भाजपा की मिली-जुली सरकार थी।

जनता के वोट से चुनी हुई सरकार के काबिज होने का मतलब सीधे जनता की सत्ता में भागीदारी से होता है लेकिन हासिल में हमें कश्मीरियों का विश्वास क्यों नहीं मिल पा रहा है। लेकिन बहस उल्टी शुरू कर दी गई कि बालाकोट में कितने दहशतगर्द मारे गये? जितने भी मारे गये मगर पाकिस्तान को तो सबक सिखाया ही गया और बताया गया कि वह उस अहद से बन्धा रहे जो जनवरी 2004 में भारत व पाक के बीच हुआ था कि पाकिस्तान अपनी सरजमीं का इस्तेमाल भारत के खिलाफ दहशतगर्द कार्रवाइयों में नहीं होने देगा। यह तो हिन्दोस्तान के हर गांव का आदमी तक जानता है कि ‘जो बात से नहीं मानता तो उसे हाथ से समझा दो।’

Chania