Sunday, May 5th, 2024 Login Here
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दसवीं और बारहवीं कक्षा के परिणाम घोषित हो जाने के बाद मेधावी छात्रों की तस्वीरें अखबारों में प्रकाशित हो रही हैं। टीवी चैनलों पर उनके इंटरव्यू दिखाये जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर उनकी चर्चा है। परिणामों में 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक लाने वाले और सौ फीसदी अंकों के करीब पहुंचने वाले छात्रों की संख्या बढ़ी है। अंक तालिका में जो जितना ऊपर है वह उतना ही सफल और असाधारण माना जा रहा है। दीवारों पर कोचिंग संस्थानों और प्राइवेट स्कूलों के होर्डिंग लगने शुरू हो गये हैं। समाचार पत्रों में भी स्कूल विज्ञापन दे रहे हैं। ऐसा वातावरण सृजित हो गया है जैसे कम अंक लाने वाले छात्रों ने कोई जघन्य पाप कर डाला हो। परीक्षा परिणाम आने पर तेलंगाना के 23 छात्रों के आत्महत्या करने की खबर स्तब्धकारी है। उनके परिवारों के लिये अंधेरा काफी घना हो चुका है। खबरों के मुताबिक सॉफ्टवेयर की तकनीकी गड़बड़ी से कई छा​त्रों के नम्बरों में उलटफेर हुआ था। परिणाम देखने के बाद एक के बाद एक छात्रों ने मौत को गले लगा लिया। देश के कुछ अन्य हिस्सों से भी बच्चों द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबर है। क्या अंकों के खेल ने आतंक का स्वरूप धारण कर लिया है? क्या कम अंक लाने वाले छात्रों को समझाने-बुझाने और जीवन के लिये संघर्ष करने के लिये प्रेरणा देने वाला कोई शिक्षक या बाप, रिश्तेदार या समाज नहीं था?

अगर नहीं था तो क्यों नहीं था। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सभी अभिभावकों की चाहत होती है कि उनका बच्चा बेहतर अंक ले लाकर उनका नाम रोशन करे जिससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ जाये। अगर उनका बच्चा अच्छे अंक नहीं ले पाता तो उसे प्रताड़ित किया जाता है, उसका उपहास उड़ाया जाता है। अंकों को लेकर सामाजिक भयावहता बहुत ज्यादा हो चुकी है, इसलिये चिंता भी बढ़ गई है। शिक्षा के बाजारीकरण के चलते अंकों का दुष्चक्र काफी विस्तार पा चुका है। शिक्षा का दानवी बाजार बच्चों का बचपन छीन रहा है। कड़े परिश्रम के बाद अच्छे अंक प्राप्त करने वालों की उपलब्धि प्रशंसनीय है लेकिन देखना यह है कि कम अंक पाने वाले छात्र अपना जीवन ही होम न कर डालें। अभिभावकों को चाहिये कि घर में ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति न पैदा होने दें बल्कि वे अपने बच्चों में किसी भी स्थिति का सामना करने की क्षमता पैदा करें। उन्हें समझाएं कि असफलता ही सफलता की सीढ़ी है।

शिक्षा को ‘सर्ववाइवल आफ दी फिटैस्ट’ मत बनाइए। आज एक महिला की पोस्ट वायरल हुई। दिल्ली की रहने वाली महिला वंदना सूफिया कटोच के बेटे के दसवीं की परीक्षा में 60 फीसदी अंक आये हैं। उन्होंने फेसबुक पर लिखा है -‘‘मेरे बच्चे मुझे तुम पर गर्व है, तुमने दसवीं में 60 फीसदी अंक हासिल किये हैं। हालांकि ये 90 फीसदी नहीं है लेकिन इस बात से तुम्हारे प्रति मेरी भावनाओं में कोई अंतर नहीं आयेगा क्योंकि मैंने तुम्हारे संघर्ष को बेहद करीब से देखा है। जिन कुछ विषयों में तुम्हें दिक्कत थी और तुम बस हार मानने वाले थे लेकिन बस डेढ़ महीने में तुमने एक दिन तय किया कि तुम हार नहीं मानोगे और देखा तुमने…’’

वंदना के लिखने का अभिप्राय यह है कि यदि डेढ़ माह पढ़कर उनका बेटा 60 फीसदी अंक ले आया वहीं वह साल भर पढ़ता तो अंक बढ़ सकते थे। हर बच्चे की मेधा एक समान नहीं होती। सफलता के मायने सबके लिये अलग होते हैं। जरूरी तो नहीं जो लाखों कमाये वही कामयाब हो। बच्चों की सफलता के लिये मां सबसे बड़ी प्रेरणास्रोत होती है। 90 प्लस की अंधी गली में अभिभावकों को बच्चों के नम्बर कम आने पर स्वयं को अपराध बोध से घिरा हुआ महसूस नहीं करना चाहिए। क्या कला, साहित्य, संगीत, सियासत, व्यापार और उद्योग से जुड़ी सफल हस्तियां 90 प्लस अंक हासिल करने वालों की श्रेणी से हैं? आईएएस बनने के लिये 90 प्लस ही पर्याप्त नहीं बल्कि आपकी भौतिकता, तार्किकता, तीक्ष्णता, निर्भय क्षमता का मूल्यांकन किया जाता है। अपने आपको बहुआयामी व्यक्तित्व बनाना पड़ता है।

शिक्षा संस्थान लूट के अड्डे बने हुये हैं। आटो चलाने वाले, दिहाड़ी मजदूर, कम वेतन पाने वाले तो अपने सपने पूरे ही नहीं कर पाते। कान्वेंट कल्चर ने अमीर-गरीब के बीच बहुत बड़ी खाई पैदा कर दी है। बच्चे काफी दबाव में रहने लगे हैं। शिक्षा पद्धति में कुछ ऐसे बदलाव करने होंगे जिनका सम्बन्ध रैंकिंग और मैरिट से ज्यादा समान और अधिकतम अवसरों के निर्माण और योग्यता के निर्धारण में अंकों का बोलबाला न हो। अभिभावकों को भी सोचना होगा कि उन्हें अच्छी अंक तालिका चाहिये या ​िखला हुआ बचपन। उन्हें इस बात पर विचार करना होगा कि हर सफल व्यक्ति कभी न कभी विफल होता है। विफलता हमें सतर्क बनाती है। कम अंक आने का अर्थ यह नहीं कि उनका बच्चा सब कुछ हार बैठा है। उन्हें तो फिर से परीक्षा के लिये तैयार करने की जरूरत होती है। समाज को 90 प्लस की अंधी दौड़ से अलग हटकर कुछ करना ही होगा।

Chania